The man who comes to know that the house in which he lives is charged , both above and bellow as well as on all the four sides , dynamite that can explode any house even for a second ? will his attachment for that house continue any longer ? Similarly when a man comes to know that a strong dose of arsenic has been mixed with the dish served to him ,will be care to eat it ? Will he not feel inclined to leave it at once ? In the same way , when one gets convinced without doubt through discretion , a critical sense of what is good and what is bad , that the enjoyments of this world are all evanescent , burning with the flames of sorrow and destrurctive in the end like poison , will he ever remain attached to them any longer ? Realize this fact with a discerning mind and reckoning all worldly enjoyments as destructive like poison remain unattached to them ..Friday, 28 December 2012
Real Happiness
The man who comes to know that the house in which he lives is charged , both above and bellow as well as on all the four sides , dynamite that can explode any house even for a second ? will his attachment for that house continue any longer ? Similarly when a man comes to know that a strong dose of arsenic has been mixed with the dish served to him ,will be care to eat it ? Will he not feel inclined to leave it at once ? In the same way , when one gets convinced without doubt through discretion , a critical sense of what is good and what is bad , that the enjoyments of this world are all evanescent , burning with the flames of sorrow and destrurctive in the end like poison , will he ever remain attached to them any longer ? Realize this fact with a discerning mind and reckoning all worldly enjoyments as destructive like poison remain unattached to them ..Thursday, 20 December 2012
' स्याम जी की पैंजनियां '
Sunday, 16 December 2012
True purpose of our bilongings .
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Friday, 14 December 2012
प्रभु की प्राप्ति कैसे हो ?
निष्काम भाव से प्राणी मात्र की सेवा करना ही वास्तविक भजन है । यही सच्चा धर्म है । ऐसी निष्काम सेवा से प्रभु प्रेम की प्राप्ति अवश्य होती है । जिस धर्म मे दूसरों को दुःख देने , दूसरों की हिंसा करने की बात काही गयी है , वह वास्तव मे धर्म है ही नहीं । दूसरों को सुख शांति देने से ही हमे भी सुख शांति ही मिलती है । दूसरों को दुःखी करने से हमे भी दुःख ही मिलता है इसमे कोई अतिशयोक्ति नहीं है । हो सके तो मदद करने की अभिलाषा रखो परंतु वापस पाने की अभिलाषा मत रखो । कभी किसी को दुःखी देख कर खुश नहीं होना चाहिए अन्यथा प्रभु रुष्ट हो जाते है और लाख प्रयत्न करने पर भी मनाया नहीं जा सकता है , और वे खुश होने वाले को भी वही दुःख का कारण दे देते है - कहा भी गया है कि " जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । "प्राणी मात्र का भला हो , सभी सुखी हो ,किसी को कोई दुःख न हो ऐसी भावना नित्य प्रति बार बार करनी चाहिए । ऐसी भावना से हमारे समस्त विकार नष्ट होते है , तिरस्कार और द्वेष शांत होते है तथा सुसंस्कार मन मे बैठ जाते है । हम जैसी भावना करें वैसा ही आचरण भी करें । जिसके विचार , आचरण और वाणी मे एकता है उसे भय , दुःख , चिंता और क्रोध होते ही नहीं है । इसलिए जो प्राणी मात्र का हित चाहता है , किसी का भी सुख देख कर जिसके अंतःकरन मे प्रसन्नता होती है , दुःखी देख कर जिसका अंतःकरण द्रवित हो उठता है और वह अपनी समर्थ अनुसार भेदभाव रहित होकर सहायता करता है किन्तु बदले मे स्वयं कामना रहित रहता है ऐसे व्यक्तियों से सभी प्रेम करते है ।
जो आचरण हमे अच्छा न लगे वह हमे दूसरों से नहीं करना चाहिए । निष्काम भावना से जो परोपकार करता है वह सदैव सुखी रहता है । भगवान ने अवसर दिया है तो, जागो ,उठो और सेवा मे जुट जाओ फिर ऐसा अवसर बार बार नहीं आयेगा ।
Thursday, 13 December 2012
गीता - समस्त योगों का सार !
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान्हमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरीक्ष्वाकवेब्रवीत ॥ (श्री मद्भगवत् गीता - चतुर्थ अद्ध्याय )
श्री कृष्ण भगवान बोले कि -" हे ! अर्जुन मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि मे सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु के प्रति कहा था ।
सत्य न तो नया है - न पुराना । जो नया है , वह पुराना हो जाता है , जो पुराना है वह कभी नया था । जो नए से पुराना होता है वह जन्म से मृत्यु कि ओर जाता है । सत्य का न कोई जन्म है न कोई मृत्यु । इसलिए सत्य न तो नया है न पुराना । सत्य सनातन है । कृष्ण ने इस सूत्र मे बहुत थोड़ी सी बात मे बहुत बड़ी बात कही है । एक तो उन्होने यह कहा कि जो मैं तुमसे कह रहा हूँ वही मैंने कल्प मे सूर्य से भी कहा ।
जिस दिन कृष्ण कहते है कि मैंने सूर्य से कहा उस दिन भी सत्य जहां था आज भी वहीं है । जिस दिन सूर्य ने मनु से कहा तब भी सत्य जहां था आज भी वही है , जिस दिन मनु ने इक्ष्वाकु से कहा उस दिन भी सत्य जहां था आज भी वहीं है , और जिस दिन कृष्ण अर्जुन से कहते है तब भी सत्य जहां था आज भी वही है । आज भी सत्य वही है जहां था । कल न भी होंगे तब भी सत्य वहीं रहेगा जहां है ।
हम कहते है कि समय बीत रहा है लेकिन सच्चाई इसके उलट ही है समय नहीं बीतता है सिर्फ हम बीतते है , हम आते और जाते है , समय अपनी जगह है ।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगा नष्टः परन्तपः ॥
- इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजर्षियों ने जाना । परंतु हे अर्जुन , वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी - लोक में लुप्तप्राय हो गया है ।
स एवायं मया ते अद्मम योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोसि मे सखा चेति रहस्यम ह्येतुत्तमम् ॥
- वही पुरातन योग मैंने तेरे लिए वर्णन किया है क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात मर्म का विषय है ।
जीवन रोज बदल जाता है । ऋतुओँ की भांति जीवन परिवर्तन का एक क्रम है । गाड़ी के चाक की भांति घूमता चला जाता है लेकिन चक का घूमना भी एक न घूमने वाली कील पर टिका होता है । कील नही घूमती इसीलिए चाक घूम पाता है । अर्थात ये सारा परिवर्तन किसी अपरिवर्तित के ऊपर निर्भर करता है ।और वह अपरिवर्तित शक्ति है ईश्वर । ईश्वर हमेशा थे हमेशा ही रहेंगे , अनंत काल तक । चिर काल तक ।
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गीता के व्याख्यान
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Monday, 10 December 2012
उठ जाग रे मुसाफिर !
उठ जाग रे मुसाफिर !
दुनियाँ मे सार नहीं ,
दो दिन का ये तमाशा है ।
क्या राजा क्या रंक क्या रानी ,
पंडित अरु ,महंत औ ज्ञानी ।
ये संसार सारा है कहानी ,
कुछ भी है करार नहीं ,
दुनिया मे है सार नहीं ।
उठ जाग रे मुसाफिर !!
सूरज चंदा औ तारे ,
सागर सलिल करारे ।
एक दिन नहीं रहेंगे ,
बिलकुल भी आधार नही ।
दुनिया मे है सार नहीं ,
उठ जाग रे मुसाफिर !!
बन जा दुनिया से कुछ न्यारा ,
होगा तभी गुजारा ।
मानुष का तन ये पाई ,
काहे फिरत लगी लगाई ।
फिर मिलत हार नहीं ,
दुनिया मे है सार नहीं ।
उठ जाग रे मुसाफिर !!
Sunday, 9 December 2012
नूतन ( बच्चों का कोना ): बालकों के माली से
नूतन ( बच्चों का कोना ): बालकों के माली से: ये नन्हें नन्हें फूल , भरी इनमे सुगंध मतवाली । इनको न बनाना ध...
सब जग मंगता इक्को ही देवनहार

हे प्रभु ! मेरी ये मनोकामना पूरी कर दो मै एक सौ एक रुपये का प्रसाद चढाऊँगा , हे प्रभु मेरी बेटी की शादी करवा दो चाँदी का छत्र चढ़ाएँगे , बच्चे पूरे साल पढ़ाई नहीं करेंगे लेकिन परीक्षा के समय मंदिर की घंटी बजाने जरूर जाएंगे हे प्रभु! , लड़के की नौकरी लगवानी हो - हे प्रभु! , घर वर चाहिए – हे प्रभु! , बीमारी दूर भगानी हो - हे प्रभु! , कुछ भी चाहिए – हे प्रभु! , अपनी सुविधानुसार हे प्रभु! । प्रभु जी क्या करें उनके सारे ही बच्चे हैं किसको क्या दें ?
प्रभु जी अपने भक्त से कहते हैं - संसार की वस्तुएँ , संसार के सुख बड़े ही आकर्षक और चमकीले प्रतीत होते है क्या तुम्हें बस इतना ही चाहिए ?
भक्त प्रभु जी से – जी हाँ प्रभु ! एक बड़ा घर हो , धन संपत्ति से भरा हो , परिवारी जनों का आना जाना लगा रहे , दुख कभी छू भी न पाये ।
प्रभु जी बोले – तथास्तु ! ( ऐसा ही हो )
एक दूसरे भक्त से प्रभु मिले । उससे पूछने पर वह भी यही बोला । इसी तरह तमाम भक्तों से प्रभु ने पूछा सभी ने लगभग एक जैसी वस्तुएं ही मांगी । किसी ने प्रभु की मित्रता , उनमे अनुराग बना रहे , या सुविचार बने रहें , सुप्रवृत्तियाँ बनी रहें , परम निवृत्ति इत्यादि इनमें से किसी ने कुछ भी नहीं मांगा । प्रभु ने सोचा चलो अच्छा है , सब तरफ माया फैला दी सब उस मृग मरीचिका मे ही अटक गए और अब तक अटके पड़े हुए है । छूटने का उपाय किसी ने सोचा ही नहीं न प्रभु से मांगा , प्रभु ने दिया भी नहीं ।
जो देवनहार एक ही है तो उससे कुछ ऐसा मांगो कि जीवन ही सफल हो जाए । अपनी अपनी रुचि का प्रयोजन सबको अच्छा लगता है तर्क वितर्क की बात नहीं है अपने मन के आनंद की बात है । 

श्री मदभगवतगीता मे प्रभु ने कहा है कि – बहुत से जन्म के बाद एक जन्म ऐसा होता है जिसमे चतुर्विधि (अर्थार्थी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी ) भजने वालों मे ज्ञानी भक्त सबमे व्यापक सर्वत्र वासुदेव को देख कर उनका भजन करता है , मै जो सर्वत्र व्याप्त हूँ , सबमें खेल रहा हूँ , ऐसे सब मे वासुदेव के दर्शन करने के भाव से जो ज्ञानी भक्त मुझको बहुत से जन्मों के बाद भजता है , वह दुर्लभ है । सबमे वासुदेव कृष्ण को देखने वाला भक्त दुर्लभ है ,अर्थात मनुष्य जन्म ही सुदुर्लभ है ।
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Monday, 3 December 2012
स्वामी विवेकनन्द जी के विचार
ॐ
व्यक्ति को अध्यात्म का मर्म समझाने , गुण , कर्म और स्वभाव का विकास करने की शिक्षा देने , सन्मार्ग पर चलाने का ऋषियों द्वारा परिणीत मार्ग बताए गए है - धार्मिक कथाओं के कथन और श्रवण द्वारा सत्संग एवं पर्व विषयों पर उद्देश्य पूर्ण मनोरंजन , त्योहार और व्रत उत्सव यही प्रयोजन पूरा करते है ।
स्वामी विवेकानंद जी ने अपने संभाषण मे एक बार भारतीय संस्कृति की पर्व परंपरा की महत्ता बताते हुए कहा था - वर्ष मे प्रायः चालीस पर्व पड़ते है , युगधर्म के अनुरूप इनमे से दस का भी निर्वाह बन पड़े तो उत्तम है । उन प्रमुख दस पर्वों के नाम और उद्देश्य इस प्रकार है :-
1) दीपावली ;- लक्ष्मी जी के उपार्जन और उपयोग मर्यादा का बोध । गोसंवर्धन के समूहिक प्रयत्न से अंधेरी रात को जगमगाने का उदाहरण । वर्षा के उपरांत समग्र सफाई का उद्देश्य ।
2) गीता जयंती :- गीता के कर्मयोग का समारोह पूर्वक प्रचार , प्रसार ।
3) वसंत पंचमी :- सदैव उल्लासित , हल्की मनःस्थिति बनाए रखना , तथा साहित्य , संगीत एवं कला को सही दिशा देना ।
4) महाशिवरात्रि ;- शिव के प्रतीक जिन सत्प्र्व्रत्तियों की प्रेरणा का समावेश है , उनका रहस्य समझना , समझाना ।
5) होली :- नवान्न का सामूहिक वार्षिक यज्ञ , प्रहलाद कथा का स्मरण । सच्चाई का संवहन और बुराई का उन्मूलन ।
6) गंगादशहरा :- भागीरथ के उच्च उद्देश्य एवं तप की सफलता से प्रेरणा ।
7) व्यास पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा):- स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था । गुरु तत्व की महत्ता और गुरु के प्रति श्रद्धाभावना की अभिवृद्धि ।
8) रक्षाबंधन :- भाई की पवित्र दृष्टि - नारी रक्षा । पापों के प्रायश्चित हेतु हेमाद्री संकल्प । यज्ञोपवीत धारण ।
9)पितृविसर्जन ;- पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए श्राद्ध तर्पण ।
10 ) विजयदशमी :- स्वास्थ्य , शस्त्र एवं शक्ति संगठन की आवश्यकता का स्मरण । असुरता पर देवत्व की विजय ।
इनके अतिरिक्त रामनवमी , श्री कृष्ण जन्माष्टमी, हनुमान जयंती , गणेश चतुर्थी ,क्षेत्रीय पर्व हैं , जिनमें कई तरह की शिक्षाएं और प्रेरणाएँ सन्निहित है ।
Tuesday, 27 November 2012
जिहि घट दया तहां प्रभु आप

शब्द दूध घृत रामरस , मथ कर काढ़े कोय । दादू गुरु गोविंद बिन घट-घट समझ न होय । ।
मथ कर दीपक कीजिये , सब घट भया प्रकास । दादू दीवा हाथ कर , गया निरंजन पास । ।
कहने तात्पर्य यह है कि संतों के शब्द दूध के समान होते है । इस शब्द दूध मे ही रामरस रूपी घृत समाया हुआ है । गुरु और गोविंद की कृपा से ही जीव उनके शब्दों का मनन , चिंतन तथा मंथन कर रस प्राप्त किया जा सकता है । इस राम रस से अंतःकरण रूपी दीपक प्रज्ज्वलित हो उठता है , जिसके प्रकाश मे निरंजन निराकार परमात्मा परम तेजोमय दर्शन स्वतः ही होने लगते है ।
एक बोध कथा है - पूर्व जन्म का ज्ञान रखने वाले एक संत एक निर्जन स्थान मे मिट्टी से खेल रहे थे । मिट्टी से वे बच्चों की भांति घर बनाते और अन्य जरूरत की वस्तुएँ बनाते फिर मिटा देते और ज़ोर -ज़ोर से हंसने लग जाते । इसका भाव यह था कि मिट्टी के मकान और उससे प्राप्त तमाम खुशियों के पीछे मनुष्य इतना उन्मत्त हुआ घूमता है उसे यह भी नहीं पता कि यह सब नष्ट होने वाला है । एक दिन राजा की सवारी उधर से निकली । संत को देख कर महाराज ने पूछा - " संत जी आप मिट्टी से क्यों खेल रहे है ? " उत्तर मिला - " शरीर मिट्टी से ही तो बना है , अंत मे मिट्टी मे ही मिल जाना है , इसीलिए अपनी प्यारी वस्तु के साथ खेल रहा हूँ । ' राजा अत्यधिक प्रसन्न हुआ ,उसने संत से कहा कि " आप हमारे साथ चल कर रहे । " संत ने कहा -"मेरी चार शर्तें है , तुम उन्हे पूरा कर दो तो मै तुम्हारे साथ चल कर रहूँगा । " राजा के पूछने पर संत ने कहा -" मेरी पहली शर्त ये है कि जब मै सोऊ तब तुम जागते रह कर मेरी रक्षा करना , दूसरी शर्त ये है कि मेरी जो इच्छा होगी मै खाऊँगा पर तुम्हें भोजन करना मना है , तीसरी शर्त ये है मै जो चाहूँ पहनू पर तुम्हें वस्त्र धारण करना मना है , मेरी अंतिम शर्त ये है मै जहां - जहां जाऊँ तुम्हें मेरे साथ रहना पड़ेगा ।" राजा ने कहा - " मै आपके खाने पीने पहनने तथा आपकी रक्षा का प्रबंध तो कर सकता हूँ किन्तु कभी न सोऊ , भोजन न करूँ , और नग्न रहूँ ये कैसे संभव है।" संत ने कहा ," तब मै तुम्हारे साथ नहीं जा सकता । मेरा स्वामी मेरे लिए सदैव जागता रहता है , खुद खाता ,पहनता नहीं और एक क्षण के लिए भी मेरा साथ नहीं छोडता , ऐसे प्रतिपालक का साथ छोड़ कर मै कैसे चला जाऊँ । ऐसा स्वामी और कहाँ मिलेगा । ऐसे दया के सागर प्रभु के चिंतन मनन से ही जीवन का उद्धार संभव है ।
Thursday, 22 November 2012
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
चौरासी लाख शरीरों मे मानव शरीर ही अत्यंत दुर्लभ है । और इस शरीर से ही कल्याण की प्राप्ति की जा सकती है । यह शरीर ही धर्म का मुख्य साधन है ।
शरीर तो संसार मे रहता है , परंतु मन को चाहे जहां कर भी लगा कर रख सकते है , जिसमे चाहे लगा कर रख सकते है । विचार करने योग्य बात ये है की हमे मन को भगवान मे लगाना है या संसार मे । यदि मन को संसार मे लगाते है तो निश्चित रूप से मन को सुख और दुःख की अनुभूति होती है ; क्योंकि संसार मे सुख और दुःख दोनों है । मन की अनुकुल अवस्था ही सुख की अनुभूति कराती है , मन की प्रतिकूल अवस्था दुःख की अनुभूति कराती है ।
शरीर तो संसार मे रहता है , परंतु मन को चाहे जहां कर भी लगा कर रख सकते है , जिसमे चाहे लगा कर रख सकते है । विचार करने योग्य बात ये है की हमे मन को भगवान मे लगाना है या संसार मे । यदि मन को संसार मे लगाते है तो निश्चित रूप से मन को सुख और दुःख की अनुभूति होती है ; क्योंकि संसार मे सुख और दुःख दोनों है । मन की अनुकुल अवस्था ही सुख की अनुभूति कराती है , मन की प्रतिकूल अवस्था दुःख की अनुभूति कराती है ।
प्रायः सांसरिक लोग भीतर ही भीतर प्रतिकूल आचरण करते है , मन मे ईर्ष्या और द्वेष छिपाकर रखते है , नकली तथा बनावटी तौर पर अनुकूलता का आचरण प्रस्तुत करते है यानि ऊपरी तौर पर खुश रहने का दिखावा करते है और ऐसे लोग खुद को ही धोखा देने काम करते है । अपनेपन का दिखावा करते है और इस भ्रम मे जीते है कि जिस तरह वे नहीं देख पा रहे वैसे ही संसार अन्य लोग भी नहीं देख पा रहे है । इसी भ्रम वश वे सुखी होने का दिखावा करते है , दूसरों के कष्ट से उन्हे सुख मिलता है , फलां व्यक्ति सुखी क्यों है ।
संसार मे सुख का जो भ्रम है वह स्थायी नहीं है । जब कभी कही मान-सम्मान होता है तो सुख कि अनुभूति होने लगती है और मन के पर लग जाते है वह उड़ने लगता है । जब अपमान होता है तो दुख कि अनुभूति होने लगती है । दरअसल मान-सम्मान , अपमान इत्यादि तो किसी के साथ सम्बन्धों पर आधारित होते है । जब संबंध अच्छे है तो मान मिलेगा , और मान से खुशी होगी । जब सम्बन्धों मे कटुता आएगी तो अपमान मिलने लगता है और तब दुःख होना स्वाभाविक है । ये जो हमारा मन है ये हमेशा हलचल से भरा होता है , तब शांति कि स्थिति नहीं होती है । शांति कि स्थिति तभी होती है जब मन को सांसरिक अनुकूलता और प्रतिकूलता से दूर रखा जाए ।
मन को शांत रखने का ही उपाय है कि मन को भगवान मे लगा कर रखना । मन को सदा भगवान मे लगा कर रखने पर ही शांति है अन्यथा नहीं । अक्सर देखा जाता है कि अपनी इच्क्षाओं की पूर्ति के लिए मन भगवद्भक्ति मे लगाया जाता है , परिणाम ये होता है कि मन पूरी तरह से प्रभु भक्ति मे नहीं लग पाता है । सच्चा सुख पाने की इच्छा हो तो शांति स्वरूप नारायण की अनन्य भाव से उपासना और आराधना करनी चाहिए जिससे मन सुख , दुःख , मान ,अपमान , भोग विलास इत्यादि से ऊपर उठ जाता है ।
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