Sunday, 9 December 2012

सब जग मंगता इक्को ही देवनहार

              
   
         हे प्रभु ! मेरी ये मनोकामना पूरी कर दो मै एक सौ एक रुपये का प्रसाद चढाऊँगा , हे प्रभु मेरी बेटी की शादी करवा दो चाँदी का छत्र चढ़ाएँगे , बच्चे पूरे साल पढ़ाई नहीं करेंगे लेकिन परीक्षा के समय मंदिर की घंटी बजाने जरूर जाएंगे हे प्रभु! , लड़के की नौकरी लगवानी हो - हे प्रभु! , घर वर चाहिए – हे प्रभु! , बीमारी दूर भगानी हो - हे प्रभु! , कुछ भी चाहिए – हे प्रभु! , अपनी सुविधानुसार हे प्रभु! । प्रभु जी क्या करें उनके सारे ही बच्चे हैं किसको क्या दें ?
  प्रभु जी अपने भक्त से कहते हैं - संसार की वस्तुएँ , संसार के सुख बड़े ही आकर्षक और चमकीले प्रतीत होते है क्या तुम्हें बस इतना ही चाहिए ?
 भक्त प्रभु जी से – जी हाँ प्रभु ! एक बड़ा घर हो , धन संपत्ति से भरा हो , परिवारी जनों का आना जाना लगा रहे , दुख कभी छू भी न पाये ।
प्रभु जी बोले – तथास्तु ! ( ऐसा ही हो )
एक दूसरे भक्त से प्रभु मिले । उससे पूछने पर वह भी यही बोला । इसी तरह तमाम भक्तों से प्रभु ने पूछा सभी ने लगभग एक जैसी वस्तुएं ही मांगी । किसी ने प्रभु की मित्रता , उनमे अनुराग बना रहे , या सुविचार बने रहें , सुप्रवृत्तियाँ बनी रहें , परम निवृत्ति इत्यादि इनमें से किसी ने कुछ भी नहीं मांगा । प्रभु ने सोचा चलो अच्छा है , सब तरफ माया फैला दी सब उस मृग मरीचिका मे ही अटक गए और अब तक अटके पड़े हुए है । छूटने का उपाय किसी ने सोचा ही नहीं न प्रभु से मांगा , प्रभु  ने दिया भी नहीं ।
जो देवनहार एक ही है तो उससे कुछ ऐसा मांगो कि जीवन ही सफल हो जाए । अपनी अपनी रुचि का प्रयोजन सबको अच्छा लगता है तर्क वितर्क की बात नहीं है अपने मन के आनंद की बात है ।
श्री मदभगवतगीता मे प्रभु ने कहा है कि – बहुत से जन्म के बाद एक जन्म ऐसा होता है जिसमे चतुर्विधि (अर्थार्थी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी ) भजने वालों मे ज्ञानी भक्त सबमे व्यापक सर्वत्र वासुदेव को देख कर उनका भजन करता है , मै जो सर्वत्र व्याप्त हूँ , सबमें खेल रहा हूँ ,  ऐसे सब मे वासुदेव के दर्शन करने के भाव से जो ज्ञानी भक्त मुझको बहुत से जन्मों के बाद भजता है , वह दुर्लभ है । सबमे वासुदेव कृष्ण को देखने वाला भक्त दुर्लभ है ,अर्थात मनुष्य जन्म ही सुदुर्लभ है ।

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